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बाल साहित्य

मुन्नी डाँट समझती है

शादाब आलम


मुँह-माथा, भौं-नाक सिकोड़े
मुन्नी डाँट समझती है।

कभी-कभी माँ गुस्साती तो
आँखें उसको दिखलाती तो
दौड़ाती अँसुवन के घोड़े
मुन्नी डाँट समझती है।

जो माँगे वह नहीं दिया तो
कुछ भी उससे छीन लिया तो
फिर जो पाती, फेंके-तोड़े
मुन्नी डाँट समझती है।

दुलराने-सहलाने पर वह
खूब चहकती खुश होकर वह
धमकाने पर हँसना छोड़े
मुन्नी डाँट समझती है।


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